विश्व आदिवासी दिवस और झारखंडी अस्मिता के संघर्ष

World Tribal Day and struggle for Jharkhandi identity

-- जेम्स हेरेंज (सामाजिक कार्यकर्ता)
-- 9 अगस्त 2021

पूरी दुनिया के इतिहास इस बात का गवाह है कि आदिवासी जनों का औपनिवेशीकरण किया गया । उन्हें गुलाम बनाया गया । अपनी संस्कृति छोड़कर पराई संस्कृति को अपनाने के लिए मजबूर किया गया । इतना ही नहीं उन्हें अन्य प्रकार के उत्पीड़नों का शिकार बनाया गया जिसका आदिवासी जनों ने अलग-अलग तरीकों से प्रतिरोध भी किया ।

दुनिया के अधिकतर राष्ट्र-राज्य आदिवासी जनों की मांगों को मानने से इनकार करते रहे हैं कि उनको अपनी जमीनों और भू-भागों में ही रहने दिया जाये जो उनकी सामाजिक ब्यवस्थाओं, संस्कृति और पहचान के आधार हैं । 24 अक्टूबर 1945 को गठित संयुक्त राष्ट्र संघ, जिसमें वर्तमान में अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, भारत सहित दुनिया के कुल 192 देश सदस्य हैं, ने गठन के 50 साल बाद यह महसूस किया कि 21 वीं सदी में भी विश्व के विभिन्न देशों में रहने वाले जनजाति (आदिवासी) समाज अपनी उपेक्षा, गरीबी, अशिक्षा, मूलभूत स्वास्थ्य सुविधा का अभाव, बेरोजगारी एवं बंधुआ मजदूर जैसे समस्याओं से ग्रसित हैं । जनजातीय समाज के उक्त समस्याओं के निराकरण हेतु विश्व का ध्यान आकर्षण के लिए प्रस्ताव संख्या 49/214, दिनाँक 23 दिसंबर 1994 को संयुक्त राष्ट्र संघ के महासभा द्वारा प्रति वर्ष 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाने का फैसला लिया गया ।  इसके बाद सम्पूर्ण विश्व में यथा अमेरिकी महाद्वीप, अफरीकी महाद्वीप तथा एशिया महाद्वीप के आदिवासी बाहुल्य देशों में 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस बड़े जोर-शोर और हर्षोल्लास से मनाया जाता है, जिसमें भारत भी प्रमुखता से शामिल है ।

भारत की जनगणना रिपोर्ट 2011 के अनुसार देश के 26 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों में आदिवासियों की जनसँख्या 10 करोड़ से अधिक है । जो कि सम्पूर्ण जनसँख्या का 8 प्रतिशत है । आदिवासी समुदाय में साक्षरता दर सिर्फ 59 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय साक्षरता दर 73 प्रतिशत है । यदि हम झारखण्ड राज्य पर गौर करें तो अविभाजित बिहार में 1931 ई० में आदिवासी जनसँख्या 38.06% था. झारखण्ड अलग राज्य बनने के बाद 2001 में यह घट कर 26.30% थी और 2011 में हुए जनगणना के अनुसार यह संख्या और भी कम होकर 26.02% रह गयी है ।

जबकि इसी समय और काल के दौरान भारत में आदिवासी समुदाय की जनसँख्या 1961 में 6.90% से बढ़कर 2011 में 8.60% हुई है । झारखण्ड राज्य के लिए यह एक बड़ा सवाल है, आखिर यह नकारात्मक प्रभाव क्यों पड़ रहा है? जवाब बिल्कुल स्पष्ट है । स्थानीय आदिवासियों को विकास के नाम पर विस्थापन और पलायन का शिकार होना पड़ रहा है । इतिहास को पुनः दुहराते हुए खनिज भण्डार से संपन्न झारखण्ड प्रदेश बाहरी दिकू जनों को हमारी सरकारों ने बसाने के लिए पांचवी अनुसूची में निहित प्रावधानों का जमकर दुरूपयोग किया. सी० एन० टी० कानून, एस० पी० टी० कानून, विल्किंसन रुल, पेसा कानून तथा भूमि अधिग्रहण जैसे महत्वपूर्ण कानूनों में असंवैधानिक तरीके से संशोधन कर कार्पोरेट व पूंजीपति घरानों को सरकारें बाहें फैला कर स्वागत करती रहीं ।

यही वजह थी कि पिछली रघुवर सरकार ने कंपनियों को राज्य में सर्व सुविधा उपलब्ध हो इसके लिए वर्ष 2015 में सिंगल विंडो सिस्टम की शुरुआत की थी‌। जिससे कंपनी प्रतिनिधियों को अलग-अलग सरकारी कार्यालयों का चक्कर न लगाना पडे़ । 16 एवं 17 फरवरी 2017 को भाजपा सरकार ने मोमेंटम झारखण्ड का आयोजन किया । जिसमें देश और दुनिया के बहु-राष्ट्रीय कंपनियों को झारखण्ड में आकर निवेश करने का प्रस्ताव दिया गया था । 200 से अधिक कंपनियों ने निवेश के लिए सरकार के साथ समझौते किये थे । सरकारी दावा यह था कि इस आयोजन से राज्य में करीब 3 लाख करोड़ रूपये से अधिक का निवेश होगा ।

भारतीय संविधान में उल्लेखित 5वीं अनुसूची के तहत अनुछेद 244 (1) और (2) में आदिवासियों को पूर्ण स्वशासन व नियंत्रण की शक्ति दी गयी है । झारखण्ड के 13 अनुसूचित जिलों में राज्यपाल को शासन करना है । लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी किसी राज्यपाल ने इन क्षेत्रों के लिए अलग से कोई कानून नहीं बनाया । परिणामतः गैर अनुसूचित (अर्थात सामान्य) जिले के नियम कानून ही आज तक आदिवासियों के ऊपर लादे जाते रहे हैं । इस ब्यवस्था के अंतर्गत एक आदिवासी सलाहकार परिषद का गठन तो किया जाता रहा है, लेकिन इस परिषद् को ही अपने कर्तब्यों की जानकारी नहीं है । अगर उसे अपने जिम्मेवारी का तनिक भी एहसास होता तो आज झारखण्ड में जितनी भी आदिवासी विरोधी नीतियाँ यथा उद्दयोग नीति, खनन नीति, विस्थापन नीति, भूमि अधिग्रहण नीति, स्थानीय नीति वगैरह विनाशकारी नीतियाँ नहीं बनती ।

अनुच्छेद 19 (5) और (6) में जनजातियों के स्वशासन व नियंत्रण क्षेत्र (अनुसूचित क्षेत्र) में गैर लोगों के मौलिक अधिकार लागू नहीं होते । इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी गैर लोग अनुसूचित क्षेत्र के अंतर्गत निर्बाध गति से निवास, व्यवसाय, जमीन की खरीद आदि नहीं कर सकते । यहाँ तक कि गैर लोगों को इन इलाकों में प्रवेश के लिए वहाँ के परम्परागत प्रधानों से अनुमति लेनी पड़ेगी । लेकिन ऐसा कोई काम पिछले 60-70 सालों से चलन में नहीं रहने की वजह से यहाँ गैर लोगों को इसकी जानकारी नहीं है अनुछेद 244 (1) कंडिका (5) (क) में विधान सभा या लोक सभ द्वारा बनाया गया कोई भी सामान्य काननू अनुसूचित क्षेत्रों में हू-ब-हू लागू नहीं हो सकते‌ । जैसे आईपीसी एक्ट, सीआरपीसी एक्ट, लोक प्रतिनिधित्व कानून 1991, भूमि अधिग्रण कानून, आबकारी अधिनियम, भू-राजस्व अधिनियम, पंचायत अधिनियम 1993, नगर पंचायत अधिनियम, नगरपालिका अधिनियम, मोटरयान अधिनियम, परिवहन अधिनियम, भारतीय चिकित्सा अधिनियम 1956 आदि । अनुछेद 141 में उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित आदेशों को किसी भी विधान मण्डल या ब्यवहार न्यायालय को अनुशरण करने की बात कही गयी है । उच्चतम न्यायालय का फैसला वेदांता के अनुसार लोक सभा न विधान सभा, सबसे ऊँची ग्राम सभा ।

झारखण्ड राज्य कई तरह के खनिज संपदाओं से भरा पड़ा है, जिसका उत्खनन सदियों से गैर आदिवासियों/कंपनियों/सरकारों द्वारा किया जा रहा है । जबकि इन खनिजों का दोहन करने का अधिकार आदिवासियों को प्राप्त है । न्यायमूर्ति आर० एम० लोढा की अध्यक्षता वाले तीन सदस्यीय खण्डपीठ द्वारा 08-07-2013 के फैसले में कहा गया है, जिसकी जमीन उसका खनिज । लेकिन उच्चतम न्यायालय के फैसले का उल्लंघन करते हुए यहाँ की सरकारों द्वारा दर्जनों एम0ओ0यू0 सालों से किया जाता रहा है । ऐसे ही आदिवासियों की लाखों एकड़ जमीन अधिगृहीत कर ली गयी है और लाखों लोगों को अपने पैतृक भूमि से बेदखल होना पड़ा है । उच्चतम न्यायालय के समता जजमेंट (फैसला) 1997 के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में केन्द्र और राज्य सरकार का एक इंच भी जमीन नहीं है । यह बात धीरे-धीरे आदिवासियों के मन में घर कर रही है। उनके इस विचार को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू के द्वारा 05-01-2011 को एक रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायलय को सौंपी गयी है जिसमें यह कहा गया है कि भारत देश के 8 फीसदी आदिवासी ही इस देश के असली मालिक हैं ।

उपरोक्त संवैधानिक प्रावधान पूर्णतः आदिवासियों के हक में हैं और ये ही उनके संघर्ष के असली हथियार भी । इस विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर एक-एक आदिवासी को यह संकल्प लेने का वक्त आ गया है कि वह अपने सांस्कृतिक धरोहर, जल, जंगल, जमीन और धरती माँ की रक्षा के लिए जो इतिहास काल से उनके पूर्वज संघर्ष करते रहे हैं । हम इस संघर्ष की परम्परा को अगली पीढ़ी के लिए मिशाल पेश करके रहेंगे । चाहे सरकार हमें देश द्रोही घोषित करे या विकास विरोधी या फिर नक्सली । हमने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए कदम बढ़ाई है । हम आदिवासियों ने अपने संघर्ष के बदौलत नेतरहाट फिल्ड फायरिंग रेंज में पिछले ढाई दशकों से भारतीय सेना को रोक के रखा । कोयलकारो, औरंगा बांध, भूषण स्टील, मित्तल मेगा स्टील प्लांट जैसे कंपनियों को झारखण्ड में पांव रखने से भगाया अब भी हमारे संघर्ष जारी हैं और आने वाली पीढ़ी को भी संघर्ष के लिए तैयार करेंगे । हम गीत गाकर संघर्ष करेंगे । अपनी भाषा बोलकर संघर्ष करेंगे । जंगलों, पहाड़ों और नदियों को बचाकर संघर्ष को जारी रखेंगे. हर जुल्म के खिलाफ हम बोलेंगे । हम विध्वंसकारी विकास नीति के खिलाफ मुट्ठी भरेंगे । अम्बानी और अडानी के विरुद्ध खड़े होंगे । क्यों? क्योंकि हम इस देश के असली मालिक हैं।

-- इस आलेख में प्रस्तुत तथ्यों और विचारों के लिए लेखक ही पूर्णरूपेण जिम्मेदार हैं । हम असहमति के विवेक का भी आदर करते हैं ।