मैं नहीं तो कौन बे मैं नहीं तो कौन उर्फ चुनावी मौसम आते ही बिल से बाहर निकले हैं भदोईया बेंग
-- अरूण कुमार सिंह
पलामू । एक किस्सा सुनिए । एक गांव में एक नौजवान थे । पढ़ने में तेज थे इसलिए गांव वालों ने उनका नाम तेजू रख दिया था । बचपन से ही अंतर्मुखी स्वभाव था तेजू का । पिता किसान थे । बेटे पर बहुत गर्व था क्योंकि बेटा रात दिन किताबों में खोया रहता था । पिता ने तेजू को छठी कक्षा से ही हॉस्टल में रख दिया था । समय बीतता गया, तेजू पढ़ते गये और क्लास पास करते गये । आखिरकार उन्होंने बॉटनी से एमएससी भी कर लिया । चूंकि पढ़ाई पूरी हो गयी और इस बीच कहीं उनको जॉब नहीं लगा तो वे अपने घर लौट आये...
घर आने के बाद भी तेजू अपने घर के एक कमरे तक ही सिमट गये । वे न तो बाहर निकलते थे और न ही गांव के लोगों से मिलते जुलते थे । गांव से लेकर जेवार तक के हर घर में तेजू की सर्वत्र चर्चा होने लगी । हर घर का पिता अपने बच्चों को तेजू का उदाहरण देकर उन्हें पढ़ने में मन लगाने को कहता था...
बारिश का मौसम आया । गांव के किसान हल-बैल लेकर अपने अपने खेतों में उतरे । एक किसान हल जोत रहा था कि कियारी के आरी के बिल से एक जीव निकला । देखने में वह बड़े मेढक जैसा था जिसे देहात में ढौंसा बेंग कहते हैं । लेकिन उसे देखकर किसान कनफ्यूज हो गया । क्नफ्यूज इसलिए हुआ क्योंकि उस जीव का रंग पीला और लाल था । अमूमन मेढकों के रंग ऐसे नहीं होते...
किसान ने उस जीव की पहचान करने के लिए गांव वालों को जमा किया । दर्जनों लोगों ने उस जीव को देखा लेकिन कोई दावे से यह कहने की स्थिति में नहीं था कि यह मेढ़क ही है । सभी लोग अलग अलग तरह की बातें कर रहे थे...
तभी कुछ लोगों ने कहा कि इस जीव को पहचानने के लिए तेजू को बुलाया जाए । क्योंकि तेजू ने बॉटनी से एमएससी किया है । सभी की राय हुई तो तेजू को बुलवाया गया...
बड़ी मुश्किल से तेजू अपने कमरे से निकले और गांव की गलियों को लांघते हुए खेत तक पहुंचे । वहां गांव वालों की भीड़ लगी थी । उस अजीबोगरीब जीव को घेरकर दर्जनों लोग खड़े थे । भीड़ के आगे तेजू को लाया गया जीव को चिन्हने के लिए...
तेजू जीव के पास गये । कभी बैठकर तो कभी खड़े होकर बिल्कुल समीप से जीव को घंटों निहारा । गांव वाले उब रहे थे और तेजू के जवाब की प्रतीक्षा कर रहे थे...
तभी तेजू अचानक ठहाका मारकर जोर जोर से हंसने लगे ।हंसते हंसते जब उनका दम फूलने लगा तो एकाएक ठाठें मारकर जोर जोर से रोने लगे...
गांव वाले अवाक । लगा कि जैसे सबको सांप सूंघ गया हो । सबके सब परेशान । कोई भी समझ नहीं पा रहा था कि उस जीव को देखने में आखिर ऐसी कौन सी बात थी अथवा अचानक क्या हुआ कि तेजू एकाएक रोने लगे और फिर एकाएक हंसने लगे...?
किसी को तेजू से यह सवाल पूछने का साहस न हुआ । आखिरकार एक ग्रामीण ने हिम्मत जुटायी और तेजू से उनके रोने और फिर एकाएक हंसने का कारण पूछ ही लिया ।
तेजू बोले - "बॉटनी से एमएससी किया था । हंसना इसलिए आया कि बहुत कोशिश करके भी मैं इस जीव को पहचान नहीं पाया । बहुत कोशिश किया । लेकिन सब निरर्थक रहा । और, रो इसलिए रहा हूं कि इतना पढ़ लिखकर भी जब मैं इस जीव को पहचान नहीं पाया और... फिर, अगर मैं मर गया, तो फिर आखिर इस जीव को पहचानेगा कौन...?"
"मैं नहीं तो कौन बे... मैं नहीं तो कौन...?"
यही हाल आज बहुत सारे वैसे लोगों की है जो राजनीति के मौसम में भदोईया बेंग बने हैं । इनके भी अपने अपने तराने और अपने अपने राग हैं । लेकिन सबका स्टाइल यही है कि- "मैं नहीं तो कौन बे, मैं नहीं तो कौन...?"
चुनाव का मौसम आते ही ऐसे महानुभावों के देह में चुनावी वायरस ढुक गया है । देह में खुजली हो रही है । जानकारों का कहना है कि उनकी यह खुजली चुनाव लड़ने पर ही मिटेगी । बीच का कोई इलाज नहीं है ।
जिन्होंने कभी अपने मां-बाप के आगे भी अपना शीश नहीं झुकाया, अब वे...
गांव गिरांव की छोड़ दीजिये । जिस तन से जनम लिया और जिन्होंने पाल पोसकर बड़ा किया, ये कभी उनके नहीं हो सके । कभी उनके आगे शीश नहीं झुकाया । लेकिन चुनाव आते ही ये अपने से अवस्था में छोटे लोगों के आगे भी शीश झुकाने से बाज नहीं आ रहे । जिन्होंने कभी किसी भूखे को खाना नहीं खिलाया, वे लंगर खोलकर बैठे हैं...
जिनकी पेशा ठेकेदारी रही । जिन्होंने विकास कार्यों की हर ईंट में दगा की, वे समाज बदलने और भ्रष्टाचार मिटाने का नारा दे रहे हैं । जिन्हें समाज से कभी वास्ता ही न रहा वे समाज सेवा की कसमें खा रहे हैं । जिन्होंने ता-उम्र लोगों की जरूरत का फायदा उठाकर उनसे हर रूपये का सूद वसूला वे भी इस चुनावी मौसम में जनहित की बात करने लगे हैं...
आम जनता जिनका चेहरा सालों साल नहीं देख पाती, वे हर सुबह आकर दरवाजे पर दस्तक दे जाते हैं । जिनकी जवानी के काले किस्से मशहूर हैं, वे बेटियों को बचाने की बात कर रहे हैं...
वोट का मौसम है प्यारे, इसमें आदमी क्या, भूत तक बदल जाते हैं...
यह वोट का मौसम है प्यारे, आदमी क्या, भूत तक बदल जाते हैं । लेकिन अगर नेता डाल डाल हैं तो अब जनता भी पात पात है...! देखते जाईये कि वक्त किन किनकी कलई खोलता है...?
उनका हौसला बढ़ाईये जो सचमुच आम जनता के आदमी हैं...
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं । इस दरबारी राग का दूसरा पहलू यह है कि चुनाव मैदान में जनता, समाज और देश के सच्चे सिपाही अब भी जाने से कतराते हैं । ऐसे लोग, जो आम जनता के आदमी हैं, उनके सुख-दुख में साथ रहते हैं, जिनमें गलत को गलत और सही को सही कहने का माद्दा शेष बचा हुआ है, जिन्होंने ईमानदार जीवन जिया है, ऐसे लोगों को आगे लाईये । चुनाव में उन्हें मदद कीजिये और उनका हौसला बढ़ाईये ।