राजनीति के मारे ये बेचारे उर्फ दुनियांवाले दर पे तुम्हारे कई दिल टूटे कई दिल हारे

राजनीति के मारे ये बेचारे उर्फ दुनियांवाले दर पे तुम्हारे कई दिल टूटे कई दिल हारे

-- अरूण कुमार सिंह

यह करूण कथा है उन लोगों की जो हर दिन, हर क्षण, पिछले कई वर्षों से सोते-जागते विधायक बनने का सपना देख रहे हैं । जिन्होंने इस सपने को साकार होता देखने के लिए बरसों-बरस गांव-गांव गली की खाक छानी है । जिन्होंने बरसों बरस चूतियाआपे का दंश झेला है । जिन्होंने बात भी नहीं करने लायक लोगों के पांव पड़े हैं । जिन्होंने विधायक बनने की उम्मीद में हर देवी देवता के दर पर मत्था टेका है । यही नहीं, कफन लिये कई श्मशान घाटों की यात्रा तक की है...! पार्टी नेताओं के ताने और नखरे झेले हैं । कलेजे पर पत्थर रखकर उनकी हर फरमाईश पूरी की है । उनके एक इशारे पर छोटे से छोटे कार्यक्रमों को भी अपनी मेहनत से बड़ा बनाया है...! ये वे लोग हैं जिन्होंने अपना खून पसीना देकर और रात दिन एक करके पार्टी रूपी वटवृक्ष को सींचने का काम किया है...

क़स्मे वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या, कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या...

एकदम सच्ची बात है कि यहां कोई किसी का नहीं, सब मतलब के यार हैं । अपना अपना मतलब साधने के लिए बेचारों से राजनीति के नाम पर क्या क्या नहीं करवाया गया था...! उन्हें सब याद है । 'क' से लेकर 'डं०' तक । आज 'उनके' लिए 'इनके' मुंह से गालियों का बेतहाशा फौब्बारा छूट रहा है । कह रहे हैं कि "अकेला अकेली मिल जाये तो बेटा को हरदी गुरदी बोलवा दूं । कार्यकर्ताओं तक को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा ! अब राजनीति से ही सन्यास ले लेने का मन कर रहा है...!"

दिल भी तोड़ा तो सलीक़े से न तोड़ा तुमने, बेवफ़ाई के भी आदाब हुआ करते हैं...

डेढ़ बजे रात में एक नेता मित्र का फोन आया । बेचारे बहुत बेजार थे और लाचार भी । कहा - "अईसा होता है कहीं ? अब हम कार्यकर्ताओं को क्या मुंह दिखायें ? एक तो टिकट नहीं मिला, दूसरे, उपर से जिस टपके हुए को टिकट दिया है, उसको जिताने का प्रवचन दे रहा है । सबर की भी हद होती है न ? पिछले डेढ़ दशक से हम उम्मीद कर रहे हैं और हर बार हमें धोखा मिल रहा है ।" मैंने उन्हें सलाह दी है कि राजनीति से सन्यास ले लीजिए और समाजसेवा में जुट जाईये या अध्यात्म की शरण में चले जाईये । कम से कम खोपड़ी तो सलामत रहेगी‌...!

"समझने ही नहीं देती सियासत हम को सच्चाई... कभी चेहरा नहीं मिलता कभी दर्पण नहीं मिलता..."

कल तक गाड़ी के मिरर हेड में फूलों की माला लटकाकर चलने वालों को पार्टी के आला नेताओं ने बेचारा बना दिया है । बेचारों का ऐसा मुंह लटका दिया है कि संवेदनशील आदमी से देखा नहीं जा रहा । केवल पलामू जिले की बात करें तो ऐसे कम से कम दो दर्जन नेता हैं जिनके चुनाव लड़ने की उम्मीदों पर पार्टी ने खौलता हुआ पानी नहीं, तेल डाल दिया है । हल जुतवाया इनसे । बीहन डालकर खेती किया इन्होंने और फसल काटने की बारी आयी तो उनको लगा दिया जो कल तक खेत पर अपना चेहरा दिखाने तक न आते थे...! इनमें कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें पार्टी अभी भी सब्जबाग दिखा रही है । लेकिन असलियत इन्हें भी पता है । पर कर कुछ नहीं सकते । सबकुछ सह कर भी पार्टी में ही बने रहना इनकी मजबूरी है । ऐसे लोगों ने बिल्कुल हथियार डाल दिया है, ऐसा कहना ठीक नहीं । वे छापामार युद्ध की तैयारी कर रहे हैं । पार्टी में रहकर ही भीतरघात करेंगे । लेकिन कुछ नेता ऐसे भी हैं जिन्होंने पार्टी आदेश के विरोध में ताल ठोंककर चुनावी जंग में कूदने का पक्का मन बना लिया है और ऐसी घोषणा भी कर दी है । दोनों स्थितियां संबद्ध पार्टियों के लिए इस चुनाव में चुनौती पेश करेगी ऐसा माना जा रहा है ‌। हांलाकि चुनाव में सबकुछ वोटरों पर निर्भर करता है जो आज के दौर में किसी नेता से कम समझदार और चालाक नहीं होते !